एक राष्ट्र एक चुनाव: एक नई दिशा की ओर: न्यायमूर्ति रोहित आर्य (सेवानिवृत)

भोपाल
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स ने एक बार कहा था, 'कठिनाई नए विचारों को विकसित करने में नहीं, बल्कि पुराने विचारों से मुक्त होने में है।‘ संभवत: एक देश एक चुनाव का विरोध कर रहे राजनीतिक दल और नेता पुराने विचारों से मुक्‍त होने में ही कठिनाई महसूस कर रहे हैं, या सिर्फ विरोध की राजनीति के तकाजे उन्‍हें इस अभिनव प्रयास का समर्थन करने से रोक रहे हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जिसकी नीव विविधता में एकता की अवधारणा पर टिकी हुई है। "एक राष्ट्र, एक चुनाव" इसी विचारधारा को सशक्त बनाता है, जिससे संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जा सकें। यह विषय न केवल प्रशासनिक सुधार से जुड़ा है, बल्कि यह हमारे लोकतंत्र को अधिक संगठित, कुशल और प्रभावी बनाने की दिशा में एक एतिहासिक कदम भी है। यह प्रणाली चुनावी प्रक्रिया को सरल बनायेगी, शासन को स्थिरता प्रदान करेगी और अर्थव्यस्था पर पड़ने वाले अनावश्यक बोझ को कम करेगी।
पहले भी होते रहे हैं एक साथ चुनाव
हालांकि "एक राष्ट्र, एक चुनाव" प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस दिशा में की गई पहल के बाद से चर्चा का विषय बना है, लेकिन यह कोई नया विचार नहीं है। भारत में 1952 के पहले आम चुनाव से ही लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराये जाते थे, इसके बाद राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव होते थे। उससे पहले यही प्रकिया ब्रिटिश सरकार द्वारा 1935 के भारत शासन अधिनियम में भी अपनाई गई थी। हालांकि, 1967 के बाद राजनैतिक और सामाजिक बदलावों के कारण यह व्यवस्था टूट गई। 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने संसद को भंग कर समय से पहले चुनाव कराए, जिसके बाद यह प्रवृत्ति और मजबूत हो गई। नतीजा यह हुआ कि आज हम वर्षभर में कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के अलग-अलग चुनाव होते हुए देखते हैं। इसका प्रतिकूल प्रभाव शासन व्यवस्था, आर्थिक संसाधनों और प्रशासनिक कार्यों पर पड़ा है। 1962 में भारतीय चुनाव आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि "अगर संभव हो तो प्रयास और खर्च की पुनरावृत्ति से बचना चाहिये "। 1983 की वार्षिक रिपोर्ट में भी संसदीय और विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने की आवश्यकता को दोहराया गया। 170वीं विधि आयोग की रिपोर्ट ने तो इसे और आगे बढ़ाते हुये अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को इसका प्रमुख कारण बताया। इस अनुच्छेद का अत्यधिक प्रयोग भारत के संघीय ढांचे के लिये चिन्ता का विषय बना रहा है। 2015 में 79वी स्थाई समिति की रिपोर्ट ने भी एक साथ चुनाव कराने के विचार का समर्थन किया।

दूषित हो गई लोकतांत्रिक प्रणाली
देश में होने वाले बहु-चरणीय चुनावों ने कई समस्याओं को जन्म दिया है और इनके कारण पैदा हुई बुराईयों ने हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ही दूषित कर दिया है। चुनावों में बाहुबल का बढ़ता प्रयोग लोकतंत्र के लिये खतरा बन गया है। मतदान के दौरान होने वाली हिंसा जैसी घटनाएं चुनावी प्रक्रिया को बाधित करती हैं। बहु-चरणीय चुनावों में कानून व्यवस्था पर गंभीर असर पड़ता है। चुनावों में फर्जी समाचार, सोशल मीडिया में दुष्प्रचार और मतदाताओं को गुमराह करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है। बार-बार होने वाले चुनावों के कारण ध्यान शासन से हटकर चुनाव प्रचार पर  चला जाता है, जिससे नीतियों के कियान्वयन में देरी होती है। इससे मुफ्तखोरी की राजनीति की शुरुआत हुई जो राज्‍य की वित्‍तीय स्थिति को नुकसान पहुंचाती है। बार-बार होने वाले चुनावों के दौरान आदर्श आचार संहिता विकास कार्यक्रमों और प्रशासन को बाधित करती है, जिससे नीतिगत गतिरोध उत्पन्न होता है और कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में देरी होती है। हर बार के चुनावों में भारी सुरक्षा बल और कर्मचारियों की तैनाती होती है, जो न सिर्फ सरकारी संसाधनों पर दबाव डालती है, बल्कि‍ आवश्‍यक सेवाओं को भी बाधित करती है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में ही 70 लाख अधिकारियों की तैनाती हुई थी। बार-बार के चुनावों से मतदाताओं पर सामाजिक और आर्थिक प्रभाव पडता है। वे उदासीनता और थकान महसूस करने लगते हैं। जनजातीय और दूरस्थ क्षेत्रों के लोगों की भागीदारी सीमित हो जाती है।
देश के लिए हितकारी
केन्द्र सरकार ने ‘एक देश, एक चुनाव’ के विचार को आगे बढ़ाने के लिये पूर्व राष्‍ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्‍यक्षता में "कोविन्द समिति " का गठन किया था। इस समिति के सुझावों के आधार पर 129वां संवैधानिक संशोधन विधेयक पेश किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि एक साथ चुनाव होने से खर्च और प्रशासनिक लागत की  बचत होगी। कम चुनाव निर्बाध शासन और नीतियों का क्रियान्‍वयन सुनिश्‍चित करेंगे। एक साथ होने वाले चुनाव केन्द्र और राज्य की नीतियों के बीच समन्वय में सुधार करेंगे। मतदान प्रतिशत बढेगा और एक साथ होने वाले चुनावों से राजनीतिक स्थिरता तथा आर्थिक विकास की राह प्रशस्‍त होगी, जो निवेशकों के विश्वास को बढ़ावा देगी। समिति ने वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव का अनुमानित खर्च 1.35 लाख करोड बताया है। समिति के अनुसार एक देश, एक चुनाव से कम से कम 12000 करोड읧 की बचत तो होगी ही, काले धन और भ्रष्‍टाचार पर भी रोक लगेगी। समिति के अनुसार ‘एक देश, एक चुनाव’ देश के जीडीपी के 1.5 प्रतिशत की बचत कर सकता है। इससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलेगा, अप्रत्याशित प्रचार खर्च कम होंगे और चुनाव के बाद मुद्रास्फीति में कमी होगी। यदि सभी चुनाव एक साथ कराए जाएँ, तो सरकार को पूरे पाँच साल तक निर्बाध रूप से कार्य करने का अवसर मिलेगा। इससे विकास की गति तेज होगी, सामाजिक योजनाओं को प्रभावी रूप से लागू किया जा सकेगा और जनता को वास्तविक लाभ मिलेगा।

सबका साथ, सबका विश्‍वास के साथ आगे बढ읧ी प्रक्रिया
कोविंद समिति ने एक देश, एक चुनाव के मुद्दे पर व्‍यापक विचार विमर्श किया। समिति ने कुल 62 राजनीतिक दलों से इस प्रस्ताव पर सुझाव मांगे। इनमें से 47 दलों ने अपनी प्रतिक्रिया दी, जिनमें से 32 दलों ने इसका समर्थन किया और 15 ने इसका विरोध किया। इसके अतिरिक्त, भारत के चार पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने भी अपनी राय दी और सभी ने इस कदम का समर्थन करते हुए कहा कि यह संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं है। उच्च न्यायालयों के 9 पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकी 3 ने असहमति व्यक्त की। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों ने भी समकालिक चुनावों के पक्ष में राय दी। इसके साथ ही समिति ने पूर्व राज्य चुनाव आयुक्तों, बार कॉंसिल, एसोचेम (ASSOCHAM), फिक्की (FICCI) और सी.आई. आई. (CII) के अधिकारियों से भी चर्चा की। जनता से मांगे गए सुझावों में से 83 प्रतिशत प्रतिक्रियाएं (13,396) एक देश, एक चुनाव के पक्ष में थीं, जबकी केवल 17 प्रतिशत (2,276) ने इसका विरोध किया। इससे साफ है कि वर्तमान विधेयकों को प्रस्तुत करने से पहले एक व्यापक परामर्श प्रक्रिया अपनाई गई थी।
सार रूप में कहें तो "एक राष्ट्र एक चुनाव" भारत के संविधान की मूल संरचना से प्रेरित है। इस देश के लोगों ने स्वयं ये संविधान अपनाया है, इस भावना से कि प्रत्येक नागरिक को आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक न्याय सुलभ होगा। आर्थिक एवं सामाजिक न्याय के परिप्रेक्ष्‍य में तो केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने अतीत में कई कदम उठाए हैं, कई नीतियां बनाई हैं, परंतु राजनैतिक न्याय के क्षेत्र में प्रयास नगण्य ही रहे हैं। "एक राष्ट्र, एक चुनाव" का विचार हालंकि नया नहीं है, परंतु इच्छा शक्ति के अभाव में इसके क्रियान्‍वयन के प्रयास नहीं किए गए। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के अथक प्रयासों से इस सोच पर नए सिरे से विमर्श शुरू किया गया, ताकि धरातल पर इसका क्रियान्वयन संभव हो सके। यह कदम संविधान की अधोसंरचना के अनुरूप है, क्योंकि "एक राष्ट्र एक चुनाव" जनता को राजनैतिक न्याय दिलाने की दिशा में एक साहसिक एवं अहम पहल है, जो कि देश के नागरिकों के संदर्भ में निश्चित रूप से सार्थक भी  है।
निष्कर्ष
जॉन एफ. कैनेडी ने कहा था, "छत की मरम्मत का सही समय तब होता है जब धूप खिली हो"। अब समय आ गया है कि समाज के विकास और सुशासन के लिए "एक राष्ट्र, एक चुनाव" के विचार को अपनाया जाए। जो "जो अधिकतम शासन न्यूनतम सरकार " के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में एक एतिहासिक कदम होगा।
"एक राष्ट्र एक चुनाव " केवल एक प्रशासनिक सुधार नहीं है, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र को अधिक संगठित और प्रभावी बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने इस विचार को आगे बढ़ाते हुए कहा:
"एकता के अपने प्रयासों के तहत, हम अब एक राष्ट्र, एक चुनाव' पर काम कर रहे हैं, जो भारत के लोकतंत्र को मजबूत करेगा, संसाधनों का अधिकतम उपयोग करेगा और 'विकसित भारत' के सपने को नई प्रगति और समृद्धि की ओर ले जाएगा।"
आइए, हम सब इस ऐतिहासिक पहल का समर्थन करें और भारत को एक अधिक संगठित, शक्तिशाली और समृद्ध लोकतंत्र बनाने में अपना योगदान दें।
"एक भारत, श्रेष्ठ भारत"

लेखक-उच्‍च न्‍यायालय के पूर्व न्‍यायमूर्ति एवं भाजपा वन नेशन, वन इलेक्‍शन प्रदेश टोली के संयोजक है।

 

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