योगेश पाण्डेय
‘राजा होने के लिए बेहद आवश्यक है कि वह मोटी बुद्धि का हो’ यह चुटीला संवाद दर्शकों तक पहुंचता है। ठहाके की आवाज़ हॉल में गूंज गई। यह असर है कथा गायन-वाचन शैली में प्रस्तुत नाटक ‘बड़ा भांड तो बड़ा भांड’ का। दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में यह नाटक प्रस्तुत किया गया था। नाटक की कथा, गीत-संगीत और अभिनय के जादू का असर सभागार से बाहर निकल कर भी बना रहा। अभिनेता अजय कुमार के साथ दर्शकों को यह कथा-यात्रा आनंदित करती है। कथा गायन-वाचन सुनते देखते अलग-अलग रसों में विभिन्न बिम्ब बनते जाते हैं।
सुधी दर्शक विचार के स्तर पर सक्रिय रहते हैं। मंच पर रचे जा रहे बिम्ब और दृश्यों का मर्म वे गहराई से समझते हैं। एकल कथा गायन-नाट्य देख रहे दर्शकों में से एक, डॉ पूजा शर्मा का कहना था कि मैं तो देखती ही रह गई। थियेटर के इस फॉर्म को अब तक नहीं देखा था। अभिनेता कथानक और पात्रों को अकेले गीतों के सहारे बढ़ाता जाता है। उन्हें यह भी लगा कि अभिनेता के लिए यह विधा बड़ी चुनौती है। इसमें दमदार कथा के साथ ही दर्शकों को बांधे रखने में चुस्त अभिनय, बढ़िया गायन और संगीत सबकी जरूरत है। एक अन्य दर्शक रामसेवक बताते हैं कि यहां अभिनेता का कमाल दिखता है, अचानक ही दर्शकों को कथा से बाहर निकाल बातचीत तथा फिर से वही उत्सुकता जगा देता है। देखने वाले कॉमिक रिलीफ़ लेकर भी कथा में बने रहते हैं। गीता जोशी और कंचन ने बताया कि नाटक के अंत में गाया हुआ कबीर का निर्गुण इसे आध्यात्म की अद्भुत सुंदरता से जोड़ता है।
अजय कुमार ने बातचीत के क्रम में बताया कि अभिनेता के पास कोई भी बात कहने के लिए दो उपकरण ‘शरीर और आवाज़’ ही तो है। दूसरी ओर सदियों पुरानी यह परंपरा लुप्त होने के कगार पर है। एक समय था जब विभिन्न नामों से देश में कथा कहने की यह परंपरा जीवित थी जैसे कथा गायन,बातपोशी, दास्तानगोई, पांडवानी आदि। कोशिश कर रहा हूं यह बची रहे।
निश्चित रूप से कर्ण-प्रिय आलाप, ध्वनियां और संगीत इस एकल नाट्य की जान है। लगभग 20 वर्षों से अजय इसकी प्रस्तुति कर रहे हैं और देशभर में इसके 580 शो किए जा चुके हैं। विजयदान देथा की किस्सागोई के अजय कुमार मुरीद हैं। ‘बड़ा भांड तो बड़ा भांड’ उनकी कहानी रिजक की मर्यादा पर आधारित है। देथा की ही लिखी अन्य कहानी दुविधा का प्रदर्शन भी अजय कुमार ‘माई री मैं का से कहूं’ नामक शीर्षक से करते हैं। अजय मंच से विनम्रता से कहते हैं कि अगर कहानी आप तक पहुंच पाती है तो यह देथा जी का कमाल है। पर
अनिल मिश्रा(सारंगी एवं गायन), राजेश पाठक (हारमोनियम एवं गायन),सुशील शर्मा(ढोलक एवं गायन) तथा उस्ताद मुस्तफा हुसैन (तबला) इस प्रस्तुति की जान हैं । अपनी संगीत मंडली को अजय इन प्रस्तुतियों का स्पाइनल कॉर्ड (रीढ़ की हड्डी) कहते हैं। वे कहते हैं कि अगर ये सुरीले लोग न हों तो मैं इसे प्रस्तुत करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। इनके बिना मैं केवल वाचक भर रह जाऊंगा।